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भाषा शक्ति

देश की भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता
पहचानने की जरूरत
भाषाएँ जनसंवाद की माध्यम हैं, सामाजिक-आर्थिक विकास की संवाहक हैं और इसके साथ ही इनमें समाज और संस्कृतियों को निकट लाने और उनमें एकात्मता के भाव भरने की भी अद्भुत ताकत है. इनकी इस ताकत को विकास एवं सामाजिक समन्वय के अन्य घटकों अथवा कारकों से कम नहीं आंका जा सकता. भारतीय समाज की अनेक विशेषताओं में यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि हमारा यह समाज बहुभाषिक भी है. किंतु अपनी भाषाओं की इस ताकत का सदुपयोग हम नहीं कर पाये हैं.
भारतीय भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता की पहचान कर पाने में हमारी विफलता भी हमारे विकास की गति को अवरुद्ध कर रहा है. केंद्र सरकार और राज्यों के बीच भी संपर्क भाषा अंग्रेजी को बना दिए जाने से निजी क्षेत्र और वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में भी अंग्रेजी ही संपर्क भाषा बन गई है.
यह तथ्य है कि समर्थकों की ताकतवर लॉबी होने और पिछले सवा सौ वर्षो से सत्ता का समर्थन प्राप्त होने के बावजूद अंग्रेजी भी आज तक हमारे देश में ‘सर्वव्यापक’ नहीं बन पाई. लेकिन एक सच्चाई यह भी है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा अन्य दूसरी भारतीय भाषा में भी सर्वव्यापकता एवं सर्वग्राह्यता का अभाव है.
भाषाएँ जितनी समृद्ध होती हैं, उनका समाज उतना ही सुसंस्कृत, गतिमान और सशक्त होता है. भाषा की समृद्धि उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर होती है. एक भाषा जब अन्य भाषाओं के शब्द और गुणधर्म ग्रहण करती है, तभी वह सर्वसामान्य के लिए स्वीकार्य बनती हैं. साथ ही उसमें सर्वव्यापकता के गुण भी आते हैं. ऐसी सर्वव्यापक भाषाएँ ही समाज या राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग के साथ सफल संवाद स्थापित कराती हैं और समाज या राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लाभ तीव्र गति से सामान्य जन तक भी पहुँचाती हैं.
भाषा की सर्वव्यापकता, उसकी ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी को इसका उदाहरण माना जा सकता है. समस्त यूरोपीय और एशियाई भाषाओं की शक्ति ग्रहण कर उसने अपने को इतना समृद्ध बनाया है कि आज वह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का वाहन बन विश्व भर में छा गई है और हमारे देश की अस्मिता पर कुंडली जमा कर बैठ गई है. इस कारण हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी समेत भारत की सभी पंद्रह राजभाषाएँ पंगु ही बनी हुई है. यही कारण है कि देश की तीन-चौथाई जनता देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा पाने से अभी तक वंचित हैं. भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बनाने के लिए ‘भाषा समन्वय’ एक सशक्त मार्ग है. भाषा समन्वय की यह अवधारणा देश की संस्कृति को गतिमान बनाने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करने में सहायक होगी.
भारत में हिन्दी समेत पंद्रह राजभाषाएँ हैं, जिनका अपना समृद्ध साहित्य भंडार है. इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में हैं. भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक जैसी अनेक परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण ये सभी भाषाएँ एक दूसरे के काफी करीब भी हैं. यदि इन सभी भाषाओं को एक दूसरे की शक्ति हासिल हो जाए तो ये अपने आप समृद्ध हो ही जाएँ और सर्वव्यापकता का गुणधर्म में भी इनमें समा सकती है. इसके साथ ही अंग्रेजी का सशक्त विकल्प भी ये बन सकती हैं. लेकिन इसके लिए समन्वय की एक ‘आधारशिला’ तैयार करने की जरूरत है. क्या यह संभव नहीं है?हमारा विश्वास है कि यह संभव है और ऐसा हो सकता है. जरूरत होगी- एक साधारण सी ईमानदार कोशिश की. आखिर स्वयं हिन्दी भी और उर्दू भी- ऐसे ही समन्वय की ही तो उपज हैं. हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाएँ इसी समन्वय की प्रक्रिया का हिस्सा बना दी जाएँ, अर्थात इनकी शक्ति के समन्वय का सुनियोजित प्रयास शुरू किया जाए तो ये सभी भाषाएँ न केवल सर्वव्यापी और सर्वग्राह्य बन जाएंगी, बल्कि इस सद्प्रयास के कुछ अन्य ऐसे परिणाम भी सामने आएंगे, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को और अधिक मजबूत बनाएंगे, क्षेत्रीय असमानता दूर करने में सहायक होंगे और सभी प्रांतों के अलग अलग भाषा-भाषियों के बीच बेहतर संवाद भी स्थापित करेंगे. यह स्थितियाँ सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय को भी पुष्ट करेंगी. साथ ही व्यापार एवं व्यवसाय के विकास को भी तीव्र और स्वस्थ बनाएंगी.
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