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Short Story विश्वास की जीत

                             लघुकथा

 [ विश्वास की जीत ]
 
    


                          
आज सुबोध को अपने  दोस्तों के साथ रेलवे  प्लेटफाॅर्म पर खड़े दो घंटे से भी ज्यादा समय बीत चूका था |
घड़ी की बढ़ती सुइयों के साथ उसके दिल की धड़कन भी तेजी से बढ़ती जा रही थी |
तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी |
उस ओर से सुमन ने उसके हैलो बोलने की प्रतीक्षा किए बिना ही बोलना शुरू  कर दिया सुबोध हो सके तो मुझे माफ कर देना, पर मैं तुम्हारे लिए अपने माता - पिता को धोखा नहीं दूंगी | हां, तुम्हारे प्यार में मेरे कदम बहक जरूर गए थे , पर भगवान का शुक्र है कि समय रहते ही मुझे मेरी गलती का अहसास हो गया वरना मेरे माता -पिता तो जीते जी ... कहते उनका गला रुंध गया ।
सुबोध इधर से कुछ कहता इसके पहले ही सुमन फोन काट चुकी थी|
बात करते सुबोध का फोन स्पीकर पर था, अत: उसके पास ही खड़े उसके दोस्त भी सुमन की पूरी बात सुन चुके थे |
फिर दोस्तों ने सुबोध की आँखों में झांककर उसे डपटते हुए कहा कि हमने ऐसे कई किस्से सुने है , जहां प्यार में लड़कों ने लड़कियों को धोखा दे दिया , पर यहां तो एक लड़की ने । इस पर भी तू बजाय गुस्सा होने और उसे भला -बुरा कहने के प्यार में हार कर के भी मुस्करा रहा है ।


तब अब तक खामोश सुबोध बोला, तुम नहीं जानते यारों कि सुमन के पिता और मेरे पिता काफी अच्छे दोस्त हैं। मेरे  पापा सुमन के पिता के आदर्शों की तारीफ करते कभी नहीं थकते हैं । इससे मुझे अजीब -सी चिढ़ हो गई थी ।
मैंने सोचा कि अगर मैं सुमन से उनकी इच्छा के बिना प्रेम विवाह कर लूं तब समाज में अंकल के आदर्शों की भी धज्जियां उड़ जाएंगी । मेरी पिता भी अपने दोस्त की बढ़ाई करना हमेशा के लिए बंद कर देंगे । लेकिन अंत समय में आज उनके आदर्श व विश्वास मेरे प्रेम पर भारी पड़ ही गए ।

इसलए दोस्तों, यह मेरी हार नहीं बल्कि अपनी बच्ची पर उसके माता-पिता के प्रेम और विश्वास की सच्ची जीत है।

 

 

 










 



अविनाश
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